शब्दों से खाली सकोरे , भरे हैं बूंदों से जल की
by Suman Mishra on Thursday, 5 April 2012 at 01:33 ·
बूँद जो टपकी थी नभ से किसके हिस्से में थी आयी
मिल गया खाली सकोरा , या मिली धूसर धरा से
बूँद की वो मनः स्थिति , कहा उसकी दिशा तय थी
अंत जैसा लिखा होगा, मिलेगी उस बिंदु पर वो
फूल की पंखुरी होगी , या किसी कागज का पन्ना
या किसी की हो हथेली , या कोई सोता या चशमा
या कोई मदिरा का प्याला ,या अधर का शुष्क कोना
या कही सूखी जमी पर रेत का हो एक बिछौना
रात की झिलमिल सितारों की बड़ी बारात थी वो
हर सितारा बूँद शबनम आतुरों की रात थी वो,
हम खड़े थे मूक से बस अलहदा लेने नज़ारे
कब गिरेगी बूँद बनकर अक्स में होंगे सितारे
हम इन्तजार में हैं की कोई नया तो हो
ये आसमा धरती बने ,हम आसमा पे हो
जितनी भी नै दुनिया नए लोग और भाषा
खाली सकोरे शब्द के बूंदों से भरे हों...
हमने उछाली रस्सियाँ पकड़ेंगे सितारे
ये रातों को शबनम गिरा के गुमशुदा सारे
कोई नहीं आया गया खाली मेरा फंदा
बस ओस की बूंदों से सना एक परिंदा
हर रात वो आँखों को बन कर के जगा था
ये नीड़ भी उसका नहीं किसी और का बना था
अपनों की हिरासत में रहा इतने दिनों तक
आज ही खुले हैं पंख मगर भीगा हुआ था,,,,
कोई बसर करता है जिन्दगी तलातुम सी
कोई जमी है ज़रा ग़मगीन मुर्रौवत सी
हर बात में उसकी ही आरजू पे वो ज़िंदा
अब आदमी का फ़र्क ज़रा सा पता नहीं
निकलो ज़रा बाहर गमो से आजाद बनो तुम
ये चाँद और सूरज से ज़रा बात करो तुम
थोड़ी अलग सी दुनिया मगर खूबसूरत है
माना वजूदे यार मेरा एक बूँद ओस सा...
"कोई बसर करता है जिन्दगी तलातुम सी
ReplyDeleteकोई जमी है ज़रा ग़मगीन मुर्रौवत सी
हर बात में उसकी ही आरजू पे वो ज़िंदा
अब आदमी का फ़र्क ज़रा सा पता नहीं"
बेहतरीन पंक्तियाँ।
सादर