नुमाइश या मजबूरी
by Suman Mishra on Saturday, 26 May 2012 at 01:37 ·
जहां देखो नुमाइश का दौर है यारों
कोई चिट्ठा कहीं कच्चा या पका है यारों
बिना इसके कहीं कोई तिजारत मुमकिन नहीं
कही पे दिल, कही दिमाग का खेल है यारों
आज कुछ लोग नुमाइश का दम भरते हैं,,
किया कुछ भी नहीं बस यकी लोग करते हैं
हम तो शब्दों में चाँद तारे टांक सकते है
एक पैबंद ना खुल जाए आँख रखते है
किसी ने एक वक्त पेट भरा खुश हो गया
किसीने खींच ली तस्वीर एक रस्म हो गया
दिखायेंगे , बनायेंगे नया जहां इससे
खींच दी क्रांति की लकीर और खुश हो गया
कहीं रंगों में , कहीं लेंसों में कैद तंगहाली
कहीं अखबार के पन्नो में लिखी बदहाली
कहीं टीवी में दिखी दासता गरीबी की
कहीं सड़कों पे विछी बच्चियां करीने से
कोई भी तूलिका जादू नहीं दिखा सकती
प्राण तस्वीरों में वापस नहीं वो ला सकती
काश वो रूप नया नक्शा कुछ बना सकती
राम और कृष्ण को वापस धरा पे ला सकती
आज हालातों की नुमाइश करो और पैसा लो
इनके चेहरे में ज़रा रंग भरो पैसा लो
खुद को नारी से पुरुष का कोई किरदार करो
अपने ईमान को ताखे पे रखो पैसा लो
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