Tuesday, 22 May 2012

गड मड हो जाती है भाषा


गड मड हो जाती है भाषा

by Suman Mishra on Thursday, 22 March 2012 at 01:19 ·

एक राह जो सीधी सची हम राही हैं उसी ही पथ के
मगर कारवां में कुछ अनशन, कुछ बातों से मन का अनबन
लोग तोलते हैं भावों को , फिर भी सही नहीं आकलन
आज मुझे अनभूति है ऐसी शब्द नहीं सब गड़बड़ से हैं

जीवन ताल में नैया छोड़ी , नहीं बही बस रुकी हुयी है
हम हैं मुसाफिर हम ही कारवां ,कुछ रिश्तों पर टिकी हुयी है
रिश्ते जो हैं अपने घर के वो ही साथ चले तो जानू
आज हवा कुछ तेज बही थी और जुड़ेंगे कैसे मानू


एक फूल कितने परवाने , वफ़ा बे-वफ़ा सब अफ़साने
पेश हुवा वो इसे ही लेकर शायद हो दुष्यंत पुराने ,
अपने मन की बात ना समझे गैरों को सब अपना माने
ढूढ़ ढूंढ कर थका हुआ हूँ, अभी तो तकिया है सिरहाने


कैसे एक ही पल में इंसान बदल  है देता खुद के  जहां को

नहीं निराशा मुझको पल की, जीवन के उसूल पर धोखा
रात और दिन के फर्क को समझो सूरज को ना रास अन्धेरा
बस इंसान के लिए चांदनी , वरना सूरज का ही फेरा,,,



हमें  अक्स से क्या मतलब है ये तो बस है एक परछाई
सारी प्रकृति से हुआ वास्ता, लेकिन क्या गति इसने पायी
ये तो एक रूप रेखा है ,  पहचानो तो मन की बात को
उसकी बात जो अंतर में है, और आत्मा साथ साथ हो

मेरे शब्द हैं आज अजब से,,कुछ ऐसा वाकया है गुजरा
नहीं है मिलते स्याही  वाले कैसे स्वर्नाछरों में लिखते
कभी कभी अनुभूति हमारी हल्की दस्तक दे जाती है
शब्दों से तो कल ही मिलेंगे, खुद से पहचान करा जाती है

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