वो सुनहली धुप थी या चांदी का पट खुला था
by Suman Mishra on Wednesday, 25 April 2012 at 00:54 ·
नीर नैनो में भरे थे, झर रहे थे निर्झरों से
बूँद बन मोती से ढलके, सूख कर कंटक बने थे
माँ ने थामा हाथ जैसे निर्विकार भाव से ही
आज से तू है परायी, बेटी बन वधु कहाई
ये प्रथा क्यों साथ में है , जग हंसी की बात में है
कुछ समय जो ठहरी बाबुल घर पराया साथ में है
इन पगों की छाप छोड़ी, हर तरफ एहसास भोली
क्यों ये पल अब है उतारू ,छोड़ दे ये घर पराया
दबे क़दमों से निकल कर शाख से यूँ गले मिलना
झूमती डाली सखी थी, मन विरह सब इसे कहना
उम्र इसकी है हमारी, साथ ही पलना,संवरना
मैं चली पिय संग में अब, शाख का फूलों से मिलना
ये मिलन अब आखिरी है, दूरियों बदने ना देना
गर हवा का संग पाना, खुशबू मुझको भेज देना
याद आयेंगे सभी पल, बरखा में पल सींच देना
आज बस मैं बाँध तुमको, दूर जाऊंगी समझना
गीत , आंसू, और देहरी हो रही है अलग मुझसे
ताल उपवन खेल , सखियाँ , भी गयी मुख फेर कबसे,
आज बढ़ते हैं कदम उस नव दिशा की और देखूं,
नया सूरज चाँद देखे घूघंटो की कोर फिर से.
कुछ कदम पीछे हटेंगे , पट खुलेंगे नए बंधन
एक सीमा दिवस की हो , निशा निर्लिप्त हो आलिंगन
पंछियों के मधुर स्वर खिड़की पे आकर पूछते है
कहो देहरी नयी कैसी, मन की कसक को भांपते हैं
अब नया संसार अपना , एक मन का द्वार अपना
उसका आकर गले लगना, वो बना श्रृंगार अपना
स्वप्न का साकार होना, मन ही मन आकार होना
आज ह्रदय के स्पंदनो में स्वर उसीका नाम अपना
एक जग छूटा तो क्या है, दूसरा अब चाँद देखूं
प्रीत का घूघट सुनहरा , चांदनी के तार देखूं
अश्रु की धारों में बहकर ,आज अम्बर पार देखूं
वो गगन की लालिमा में संग प्रिय का प्यार देखूं
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