शर्म और मर्म को खामोश रहने दो
by Suman Mishra on Thursday, 15 March 2012 at 12:05 ·

शर्म और मर्म को खामोश रहने दो,
छूना नहीं इसे ! क्यों? ये बिखर जायेंगे
ये जिन्दगी की धुप छाँव से वाकिफ नहीं
मुद्दतों से खुद में ही ये जमीदोंज से हैं
उसने हिकारतों से नजरे जो फेर ली
उसने ही शर्म का लबादा सिलाया था
उसने ही मर्म के कई तोहफे दिए लाकर
उसने ही दोनों को मुझे साझा कराया था

कुछ कनखियों से बातें हवा में उडी खुशबू
कुछ फूल के पराग सी इस दिल पे छा गयी
सन्देश जो आते हैं उन्हें ढांप कर रखा
खुलते ही फना हो गए पाकर वो रास्ता
ये जो मलाले इश्क कहाँ है इसकी तकदीर
ये तो है कैद तिल्समों की पंखुरियां
बस बंद है जब तक बहारे इश्क शामिल है
ये खुल गयी फिजा में तो बस एक दास्ताँ
हर एक इंसान की अपनी ही खवाहिश है
मर्मों का खजाना वो दबाये हुए फिरता
बस जिंदगी की शाम और यादों के जलजले
आ आ के लुभाते हैं या बस दर्द की तासीर
कोई नही बचा है हर कोई यहाँ मशगूल
पर कुछ भी नहीं बस ये हवा में घुली हुयी
कुछ शब्द जुबा पे अगर आ जाएंगे कमतर
बस शर्म और मर्म की कहानी बयान है

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